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'मेरा बचपना मत छीनो', जी लेने दो मुझे अपना बचपना

जैसा की आज कल के समय जो सफलता की रेस लगी हुई है, उसमें हर कोई चढ़-बढ़कर हिस्सा ले रहा है। यही नहीं सफलता की रेस में अभिभावक और माता-पिता अपने बच्चों को उनके शुरुआती उम्र से शुरू कर दे रहे हैं। चिंता का विषय यह नहीं है की वे अपने बच्चों को रेस में शामिल कर दिए हैं बल्कि चिंता का विषय यह है की वे इस सफलता के रेस के चक्कर में उनका बचपना छिन ली जा रही है। 
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आज मैं ऐसे सभी अभिभावक और पेरेंट्स से पूछना चाहता हूँ की अगर वे अपने बच्चों के लिए उनके शुरुआती के 4 या 5 साल उनके लिए बचपन इन्जॉय करने के लिए दे दी जाये तो क्या उनका भविष्य अंधकार में चला जाएगा, शायद नहीं। स्कूली शिक्षा की बात करें तो हर स्कूल में एक विषय के रूप में "सामाजिक विज्ञान" पढ़ाया जाता है। इस विषय का सारांश यह है की बच्चा अपने परिवार और समाज के बारे में उनेक नैतिक मूल्यों को जाने और सीखें। इस विषय के शुरुआती अध्याय में एक पाठ यह की बच्चों का प्राथमिक विधालय कौन सा होता है। अगर आप सोच रहें हैं की गाँव और शहर जो सरकारी स्कूल होते हैं वे हैं तो आप बिल्कुल गलत हैं। 
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हर बच्चे का उनका प्राथमिक विधालय उनका अपने परिवार और आस-पास का समाज होता है और उन्हीं परिवार और समाज में बच्चा जन्म लेता है और उसका विकाश उसी परिवार और समाज में होता है। इसलिए जैसा उसके परिवार और आस-पास का वातावरण होगा उसी तरह से उसका विकाश होता है। बच्चे के जन्म के बाद उसका परिचय सबसे पहले उसके मां से होता होता है। मां उसे समय-समय पर दूध पिलाती है। जब बच्चा रोने लगता है तो मां को लगता है की बच्चा भूख के वजह से रो रहाf है, तो उसे दूध पिलाना शुरू कर देती है। यह परिकरिया कुछ समय तक चलता रहता है। इस बीच बच्चा यह ऑबजर्ब कर लेता है की रोने पर उसे मां दूध पिलायेगी। इस तरह से उसके सीखने की परिक्रिया निरंतर जारी रहती है। फलस्वरूप वह बोलना और चलना सिख लेता है। बोलने और चलने तक तकरीबन 2 साल लग जाते हैं। अब आगे के लगभग 2 साल में अपने समाज से अनेक नैतिक मूल्यों को सीखता है। इसके अलावा खेलना-कूदना और बोलना वह अपने प्राथमिक स्कूल में ही सीखता है। 
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लेकिन आज के पेरेंट्स और अभिभावक अपने बच्चों जैसे ही चलना सिख लेता(सामान्य तौर बच्चे 1.5 साल की उम्र में चलना सिख लेते है),उन्हें तुरंत प्ले वे स्कूल में भेज देते हैं, और लगभग 2.5 साल की उम्र तक बच्चे का जितना वजन नहीं होता है उससे कहीं ज्यादा उनके पीठ पर किताबों का वजन होता है। यह बहुत ही शर्माक कर देने वाली सोच है। यह सब पहले कुछ बड़े-बड़े शहरों तक सीमित था लेकिन अब यह छोटे-छोटे शहरों के अलावा गांवों तक फैल चुका है। 
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अंत में मैं बस इतना कहूँगा की अगर बच्चे को उसके जीवन के सिर्फ 3 या 4 साल उसके बचपना जीने के लिए दे दिया जाये तो इसका मतलब यह नहीं होगा की लाइफ में पीछे हो जाएगा या सफल नहीं हो पाएगा।   

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